
- सुरेंद्र पाल सिंह
उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों, खासकर जड़ीदुमका, देवीधार, डुंडा, चिन्यालीसौड़ और उत्तरकाशी में इन दिनों सड़कों पर बेसहारा गोवंश की भरमार हो चुकी है। यह निराश्रित मवेशी आए दिन दुर्घटनाओं का शिकार हो रहे हैं, लेकिन सरकार और प्रशासन की ओर से अब तक कोई ठोस समाधान नहीं निकाला गया है।
पहाड़ों में परंपरागत रूप से खेती-बाड़ी और पशुपालन आजीविका का प्रमुख साधन थे। लेकिन बीते कुछ वर्षों में आधुनिकरण, पलायन और सरकारी योजनाओं पर निर्भरता बढ़ने से लोग अब मवेशियों की देखभाल करने में रुचि नहीं ले रहे। खेती के प्रति घटती रुचि, मोदी सरकार की मुफ्त राशन योजना से लोगों की बढ़ती निर्भरता, पशुपालन से आर्थिक लाभ न मिलना और गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन इसके मुख्य कारण माने जा सकते हैं। इसी के चलते लोग अब मवेशियों को सड़कों और जंगलों में छोड़ने लगे हैं, जिससे इनकी हालत बदतर होती जा रही है।
पहाड़ों में बेसहारा गोवंश की बढ़ती समस्या आखिर क्यों हो रहे हैं ये बेजुबान बेघर
पहाड़ों में खेती और पशुपालन का पतन क्या मुफ्त राशन ने तोड़ी परंपराएं
उत्तराखंड सरकार ने भले ही गौशालाओं और गोवंश संरक्षण को लेकर कई दावे किए हों, लेकिन हकीकत यह है कि पहाड़ी इलाकों में कोई भी प्रभावी योजना लागू नहीं हो पाई। प्रशासन द्वारा न तो कोई शेल्टर होम बनाए जा रहे हैं और न ही कोई ठोस कार्रवाई की जा रही है।
इस समस्या के समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर गौशालाओं की स्थापना, पशुपालन को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन, बेसहारा गोवंश के संरक्षण के लिए सख्त कानून और समुदाय स्तर पर पशुपालन को दोबारा लोकप्रिय बनाना जरूरी है।
जो मवेशी कभी पहाड़ों की अर्थव्यवस्था और जीवनशैली का अहम हिस्सा थे, वही आज बेसहारा होकर दर-दर भटक रहे हैं। यह न सिर्फ मानवता पर सवाल उठाता है, बल्कि सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी को भी कटघरे में खड़ा करता है। अगर जल्द ही इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह मानव-पशु संघर्ष को और अधिक बढ़ा सकता है।
समय आ गया है कि सरकार, प्रशासन और आम जनता मिलकर इस समस्या का समाधान खोजें, ताकि ये बेजुबान मवेशी फिर से एक सुरक्षित जीवन जी सकें।
अगर इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया गया, तो आने वाले समय में यह समस्या और विकराल रूप धारण कर सकती है। बेसहारा गोवंश के कारण न केवल सड़क दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं, बल्कि फसलों को भी भारी नुकसान हो रहा है। गांवों में बचे-खुचे किसान जो अब भी खेती पर निर्भर हैं, वे आवारा मवेशियों के झुंडों से परेशान हो चुके हैं। दिनभर मेहनत से उगाई गई फसलें रातों-रात बर्बाद हो जाती हैं, जिससे किसानों की आर्थिक स्थिति और खराब होती जा रही है।
लोगों का यह भी कहना है कि सरकार सिर्फ गौसंरक्षण के नाम पर बड़े-बड़े दावे कर रही है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। उत्तराखंड में पहले से मौजूद गौशालाएं भी संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं। कई जगह तो स्थिति यह है कि गायों को चारा और पानी तक नसीब नहीं हो रहा। ऐसे में प्रशासन द्वारा नई गौशालाएं खोलने की बात सिर्फ कागजों तक सीमित नजर आती है।
इस मुद्दे पर स्थानीय नेताओं की उदासीनता भी सवालों के घेरे में है। जब चुनाव का समय आता है, तब गोवंश संरक्षण और पशुपालन को लेकर तमाम योजनाओं की घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही सब भुला दिया जाता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इन बेजुबान जानवरों की सुध लेने वाला कौन है?
समाज के कुछ जागरूक लोग और संस्थाएं जरूर इस दिशा में काम कर रही हैं, लेकिन बिना सरकारी सहयोग के यह प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। गोवंश संरक्षण के लिए हर जिले में शेल्टर होम बनाए जाने चाहिए, और सरकार को ऐसे लोगों को आर्थिक सहायता देनी चाहिए जो इन निराश्रित मवेशियों की देखभाल करना चाहते हैं।
अगर जल्द ही इस समस्या का समाधान नहीं किया गया, तो यह न सिर्फ पशुओं के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक गंभीर संकट बन सकता है। निराश्रित गोवंश की बढ़ती संख्या से सड़क दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं, खेतों की फसलें नष्ट हो रही हैं, और यहां तक कि सड़क हाईवे में भी ये जानवर भोजन की तलाश में भटक रहे हैं, जिससे वन्यजीवों और गोवंश के बीच संघर्ष की स्थिति पैदा हो रही है।
स्थानीय लोग बताते हैं कि पहले पहाड़ों में खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक थे, लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। युवा रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे गांवों में न सिर्फ खेती प्रभावित हो रही है, बल्कि पशुपालन भी लगभग समाप्ति की ओर है। जो बुजुर्ग गांवों में बचे हैं, वे या तो शारीरिक रूप से असमर्थ हैं या उनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे मवेशियों की देखभाल कर सकें। यही कारण है कि कई लोग मजबूरी में अपने पशुओं को खुला छोड़ने को विवश हो रहे हैं।
सरकार को चाहिए कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं लाए। गौशालाओं के लिए पर्याप्त धनराशि आवंटित की जाए और इसकी निगरानी भी की जाए कि वह सही जगह इस्तेमाल हो रही है या नहीं। इसके अलावा, स्थानीय प्रशासन को भी इस मुद्दे पर सक्रिय भूमिका निभानी होगी। सिर्फ सरकारी आदेश जारी करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि जमीनी स्तर पर काम करने की जरूरत है।
एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि लोगों को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी। पशु केवल तब तक उपयोगी नहीं होते जब तक वे दूध देते हैं या खेतों में काम आते हैं। हमें यह समझना होगा कि वे भी इस पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हैं, और उनकी देखभाल करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। गांवों में सामूहिक रूप से गौशालाएं बनाने की पहल की जा सकती है, जहां स्थानीय लोग मिलकर इन बेसहारा जानवरों की देखभाल करें।
यदि इस समस्या का शीघ्र समाधान नहीं किया गया, तो यह केवल पहाड़ी क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि राज्य के अन्य ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में भी गंभीर रूप धारण कर सकती है। इसलिए सरकार, प्रशासन और समाज के प्रत्येक नागरिक को मिलकर प्रभावी एवं स्थायी समाधान खोजने होंगे, ताकि इन बेजुबान पशुओं को सड़कों पर भटकने और कष्ट झेलने के लिए मजबूर न होना पड़े। यह न केवल मानवीय संवेदनशीलता का परिचायक होगा, बल्कि एक स्वस्थ और संतुलित समाज की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।