समाजवादी पार्टी के दिग्गज नेता आजम खान की हेट स्पीच मामले में रिहाई ने विधायकों, सांसदों की आनन-फानन में सदस्यता समाप्त करने, उनकी सीटों को खाली घोषित करने और उपचुनाव कराने की जल्दी पर बड़ा सवाल खड़ा किया है। इस बारे में विधानमंडल और संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारियों के साथ साथ चुनाव आयोग को भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। निश्चित रूप से देश की सर्वाेच्च अदालत को भी अपने 2013 के फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। क्योंकि इस पर अमल करने से ऐसी गलतियां होने की संभावना है, जिनका सुधार संभव ही नहीं है। आजम खान के मामले में ऐसी ही गलती हुई है।
आजम खान की हीट स्पीच ने पहुचाया था जेल
आजम खान ने 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान एक चुनावी सभा में कुछ बातें कही थीं, जिन्हें हेट स्पीच माना गया। इस पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया गया और पिछले साल विशेष एमपी, एमएलए कोर्ट ने आजम को दोषी ठहरा कर तीन साल की सजा सुना दी। इसके बाद आनन-फानन में विधानसभा के स्पीकर ने उनकी सदस्यता समाप्त कर दी और उनकी रामपुर सदर सीट को खाली घोषित कर दिया। इसके तुरंत बाद चुनाव आयोग ने उपचुनाव की घोषणा कर दी, जिसमें भाजपा के आकाश सक्सेना जीत गए। अब वे रामपुर सदर सीट के विधायक हैं और इस बीच जिला अदालत ने आजम खान को बरी कर दिया। इतना ही नहीं सुनवाई के बाद पता चला कि जिस व्यक्ति ने शिकायत की थी उसे जिले के निर्वाचन अधिकारी यानी तत्कालीन कलेक्टर ने मजबूर किया था कि वह शिकायत दर्ज कराए।
क्या न्यायायिक या संवैधानिक व्यवस्था है?
सोचें, अब क्या होगा? क्या कोई न्यायिक या संवैधानिक व्यवस्था है, जिसमें आजम खान की सदस्यता बहाल हो सके? तभी सवाल है कि क्या अदालतों से लेकर संसद, विधानसभा और चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं को ऐसी सजा के बारे में बहुत सोच विचार कर फैसला नहीं करना चाहिए, जिसमें भूल सुधार की कोई गुंजाइश न हो? आजम खान के मामले में ऐसा सवाल खड़ा हुआ है, जिस पर तमाम राजनीतिक और वैचारिक पूर्वाग्रह से ऊपर उठ कर विचार करने की जरूरत है। सदस्यता खत्म करने की इस व्यवस्था और कानून को लेकर जिन खतरों का अंदेशा पहले से जाहिर किया जा रहा था वह खतरा अब सामने आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2013 में लिली थॉमस और एक गैर सरकारी संगठन की याचिका पर यह फैसला सुनाया था कि किसी भी चुने हुए प्रतिनिधि को किसी भी मामले में अगर दो साल या उससे ज्यादा की सजा होती है तो उसकी सदस्यता तत्काल खत्म हो जाएगी। इसके साथ ही अदालत ने यह भी कहा था कि अगर ऊपर की अदालत में दोषी व्यक्ति की याचिका मंजूर हो जाती है और सजा पर रोक लग जाती है तो सदस्यता अपने आप बहाल हो जाएगी।
राहुल गांधी पर मानहानि का मुकदमा, सजा दो साल की
हाल के कम से कम दो मामलों में इस फैसले की सीमाएं और कमियां जाहिर हुई हैं। एक मामला राहुल गांधी का है, जिसमें उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा सूरत की अदालत में चल रहा था और अदालत ने राहुल के वकीलों की तमाम दलीलों को ठुकराते हुए उनको उस अपराध में होने वाली दो साल की अधिकतम सजा सुना दी। मानहानि के मामले में आमतौर पर अधिकतम सजा नहीं सुनाई जाती है लेकिन राहुल को सजा हुई और उसी समय उनकी सदस्यता समाप्त हो गई। यह एक चिंताजनक घटना है, जिसका दूरगामी असर हो सकता है। कर्नाटक के कोलार में दिए भाषण के लिए किसी ने गुजरात के सूरत में मुकदमा दर्ज किया और केरल की वायनाड सीट के सांसद की सदस्यता समाप्त हो गई! सोचें, यह कितना चिंताजनक है! ऐसा किसी के साथ हो सकता है। किसी के भाषण की कोई बात पकड़ कर देश के किसी भी हिस्से में कोई व्यक्ति मानहानि का मुकदमा कर दे और अदालत उस पर अधिकतम सजा सुना दे तो सदस्यता खत्म हो जाएगी!
क्या यह सब विपक्ष पार्टीयों के नताओं की सदस्यता खत्म करने के लिए है
अदालत के फैसले की दूसरी खामी या कमी इस चेतावनी का सच साबित होना है कि सत्तारूढ़ दल विपक्षी पार्टियों के नेताओं की सदस्यता खत्म करने के लिए इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। यह आजम खान के मामले में दिखा है। शिकायत करने वाले ने खुद माना है कि निर्वाचन अधिकारी के दबाव डालने पर उसने मुकदमा दर्ज कराया था। इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सत्तारूढ़ दल की भूमिका दिखती है। उसके बाद सजा होते ही जिस तेजी से स्पीकर ने उनकी सदस्यता समाप्त की और सीट खाली घोषित की वह भी एक चिंताजनक ट्रेंड है, जो राहुल गांधी और लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैसल के मामले में भी दिखी। इसके बाद चुनाव आयोग ने जिस तेजी से उस खाली सीट पर उपचुनाव का ऐलान किया है वह भी इस फैसले के खतरे की ओर इंगित करता है। अगर सीट खाली रहती, उस पर उपचुनाव नहीं हुआ होता तो मुकदमे से बरी होने या ऊपरी अदालत से सजा पर रोक लगने के बाद सदस्यता तुरंत बहाल हो जाती, जैसा कि मोहम्मद फैसल के मामले में हुआ। लेकिन रामपुर सीट के मामले में ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि आजम खान की सदस्यता बहाल करने के लिए पिछले साल के अंत में हुए उपचुनाव को निरस्त करना होगा।
मनमोहन सरकार में राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से फाड़ा था अध्यादेश
ध्यान रहे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार एक अध्यादेश ले आई थी, जिसे राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से फाड़ दिया था और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू हो गया। इस फैसले की वजह से लालू प्रसाद निचली अदालत से सजायाफ्ता होने के बाद चुनाव नहीं लड़ सके। अब नए सिरे से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर विचार की जरूरत है। वह विचार संसद में हो या सर्वाेच्च अदालत में हो, यह अपनी जगह है। लेकिन विचार अनिवार्य रूप से होना चाहिए। इसमें चुने गए प्रतिनिधियों के बचाव की व्यवस्था भी होनी चाहिए। इसके लिए तीन प्रावधान किए जा सकते हैं। पहला तो यह कि अपराध की श्रेणी तय हो। गंभीर या संज्ञेय अपराध के मामले में ही सजा होने पर सदस्यता खत्म होने की व्यवस्था होनी चाहिए। दूसरा प्रावधान सांसदों या विधायकों से जुड़े मामले में सुनवाई की समय सीमा तय करने का हो सकता है ताकि सर्वाेच्च अदालत तक में उस समय सीमा के अंदर सुनवाई हो सके और अंतिम फैसला आ सके। ऐसा नहीं करना अंतिम अदालत से दोषी ठहराए जाने तक बेकसूर होने के प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन है।
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ऊपरी अदालत के फैसले का करना चाहिए इंतजार
तीसरा, जब तक अंतिम फैसला नहीं आता है तब तक चुनाव आयोग उपचुनाव नहीं कराए। गंभीर अपराध में निचली अदालत की ओर से सजा सुनाए जाने के बाद सदस्यता समाप्त हो भी जाए तब भी उस सीट को खाली रखना चाहिए और ऊपरी अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए। यह सही है कि लोकसभा या विधानसभा की सीट छह महीने से ज्यादा खाली नहीं रहनी चाहिए लेकिन यह कोई ऐसा पवित्र प्रावधान नहीं है, जिसका उल्लंघन नहीं होता है। खास परिस्थितियों में ज्यादा समय तक सीट खाली रह सकती है। विशेष परिस्थितियों में जम्मू कश्मीर चार साल से ज्यादा समय से बिना विधानसभा के है और 2014-15 में दिल्ली भी छह महीने से ज्यादा समय तक बिना विधानसभा के थी। कई महानगरों में कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद महीनों से नगरीय निकायों के चुनाव भी नहीं हुए हैं। इसलिए अगर एकाध विधानसभा या लोकसभा सीट छह महीने या एक साल खाली रह जाती है तो उससे कोई आफत नहीं आ जाएगी। लेकिन इससे यह सुनिश्चित हो जाएगा कि किसी चुने हुए प्रतिनिधि के साथ ऐसा अन्याय नहीं होगा, जिसे सुधारा नहीं जा सके।
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